एक बार काफिर (गैर-मुस्लिम) के रूप में और एक बार खुद को मोमिन (मुस्लिम) मानकर, और इसी के बाद मुझे कुरआन का सार समझ आया।
मुस्लिम मानकर कुरआन पढ़ने पर मुझे बहुत अच्छा लगा क्योंकि करना-धरना कुछ नहीं और पूरी कायनात पर हक केवल अपना हो तो और क्या चाहिए!
कमाए कोई ओर,, व खाए हम, यही तो जन्नत जैसा एहसास है, घर बैठे सरकारी माल मिले खाने को तो बेवकूफ काफिर जाए कमाने को!
पत्नी अपना खेत है यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा और जरूरत पड़ने पर पत्नी को पीटने की आयत पढ़कर तो मेरी खुशी छुपाए नही छुप रही थी क्योंकि बाहर काफिर बॉस की डांट खाकर अपनी भड़ास घर में पत्नी पर निकालने का इतना अच्छा मौका इस्लाम के अलावा भला और कौनसा रिलिजन देगा?
(कुरआन की सूरा:आयत - 2:223, 4:34)
लूटपाट करने को गैर-मुस्लिम दुनिया अच्छा नहीं मानती पर अल्लाह द्वारा इसकी इजाजत देने और इसे माल ए गनीमत कहने से मेरे मन में ग्लानी का भाव खत्म हो गया तो अल्लाह की नेमत समझकर जमकर लूटो गैर-मुस्लिमों को।
(8:69 और 48:20)
कुरआन में गैर-मुस्लिमों को अपवित्र और पशुओं से भी बद्तर पढ़ने पर मुझे जिंदगी में पहली बार स्वयं के मुसलमान होने पर गर्व हुआ।
(9:28, 7:179)
कत्ल करने को गैर-मुस्लिम दुनिया अच्छा नहीं मानती पर अल्लाह द्वारा इंकार करने वालों का गला काटना सबाब (पुण्य) का काम बताने और जन्नत का वादा करने से मुझमें किसी प्रकार के अपराधबोध की समस्या नहीं रही।
(8:12, 9:111)
गुलाम बंदियों और कब्जाई स्त्रियों के साथ जबर्दस्ती सेक्स करने की छूट वाली आयत पढ़कर तो मेरे अंदर का शैतान जाग गया पर मैंने उसे समझा बुझा कर शांत किया कि बेटा अभी थोड़ा इंतजार कर क्योंकि अभी यह काफिर बहुल देश है।
(4:3, 23:5-6, 33:50 और 70:30)
अल्लाह के सिवाय कोई प्रभू पूजनीय नहीं है, मूर्तियां गंदगी है, इस्लाम के अलावा कोई अन्य धर्म स्वीकार नहीं है और अल्लाह का दीन कायम होने तक मोमिनों को लड़ने का आदेश पढ़कर तो मानो मुझे अपनी मनमानी करने की खुली छूट मिल गई यानि कोई भी विरोध करे तो उसे बस कुरआन के पन्ने खोलकर दिखा दो।
(2:163, 22:30, 3:85, 2:193 आदि)
यूं समझ लीजिए की शहर के बड़े रईस ने अपनी औलाद को पूरी छूट दे रखी है तो वो क्यों किसी को कुछ समझेगा! मेरा मतलब जब अल्लाह ने गैर-मुस्लिमों के साथ लूटपाट करने, उन्हें प्रताड़ित करने, उनसे जजिया कर वसूलने, उन्हें गुलाम बनाने और उनका कत्ल तक करने की कुरआन के अनुसार हमें इजाजत दे रखी है तो ये कमीने काफिर होते कौन हैं हमें रोकने वाले?
(8:69, 9:5, 9:14 और 9:29)
दरअसल काफिर जिसे जुल्म समझते हैं वह तो अल्लाह का हमें आदेश है इसलिये इन्हें अपनी संपत्ति और बहन-बेटियों को हमें सौंपने से आनाकानी नहीं करना चाहिये क्योंकि ये तो हमारा हक है।
(9:123, 2:221)
जब हमने अपनी ही महिलाओं को इतना दबा कर बुर्के में अशिक्षित रखा है कि दुनिया में एक भी फेमस/पॉप्युलर बुर्केवाली महिला नहीं है तो गैर-मुस्लिम महिलाओं के साथ हम क्या करेंगे वो हम बहुसंख्यक होने पर ही बताएंगे, अभी तो हिंदुस्तानी काफिर वैसे ही हमारे भविष्य के लिये माल छापने में मस्त हैं जैसे कभी कश्मीरी हिंदू मस्त थे।
काफिर के रुप में जब मैंने कुरआन पढ़ी तब एकबारगी तो मैं सिहर उठा और मुझे मेरे सनातन धर्म का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा।
कोई धार्मिक पुस्तक एक इंसान को दूसरे इंसान से इस कदर नफरत करना सिखा सकती है यह मैंने पहली बार जाना और इस्लामिक आतंकवाद से कुरआन का सीधा-सीधा संबध मैंने खुद बहुत आसानी से पढ़ा और समझा।
हम नासमझी में सभी धर्मों को अच्छी शिक्षा देने वाला कहते रहे पर कुरआन तो दूसरे धर्मों, उनके भगवानों, अनुयायियों और उनकी पूजा पद्धति को गलत बता रही है।
(3:85, 2:255, 27:6, 35:3 आदि)
जब हम मुसलमानों को नहीं कहते की तुम अल्लाह का सजदा मत करो तो मुसलमान कुरआन पढ़कर हमें क्यों कहते हैं की हम हमारे भगवानों की पूजा नहीं करें?
(3:62)
जब हम नमाज नहीं पढ़ते पर नमाज को गंदगी नहीं कहते तो मुसलमान जब मूर्तिपूजा नहीं करते तो कुरआन पढ़कर मूर्तियों को गंदगी कैसे कह सकते हैं?
(22:30)
जब हम कहते हैं की इस्लाम सहित दुनियाभर के सभी धर्म बिना आपसी वैमनस्य के यथोचित काम करें तो कुरआन दुसरे सभी धर्मों को खत्म करने का क्यों कहती है?
(8:39, 2:193 और 3:65)
जब हम कहते हैं की जो गलत काम करेगा केवल वही नर्क में जाएगा तो कुरआन कैसे कहती है कि जो गैर-मुस्लिम अच्छे काम करेगा वह भी जहन्नुम की आग में जलेगा? (9:17)
इस तरह से कुरआन का सार समझने के बाद मेरे अंदर एक आक्रोश जागा पर मैंने #हथियार उठाने की जगह #कलम उठाना बेहतर समझा।
✍🏻 #सूर्यदेव... Ki jai